महादेव ने विष को गले में क्यों रोका ? अगर पी लेते तो क्या होता ?

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महादेव ने विष को गले में क्यों रोका ? अगर पी लेते तो क्या होता ? - सावन के महीने परमेश्वर सदाशिव के सर्वहितकारी स्वरूप के प्रकट होने के आभर स्वरूप मनाया जाता है। क्युकी इसी महीने में परमपिता ब्रहम्मा जी ने अपनी सृष्टि की रक्षा के लिए देव - दानवो द्वारा कए गए समुन्दर मंथन से उत्पन्न हलाहल विष को पी लिया था। हालाँकि आदिशक्ति जगदम्बा ने इस विष के घातक प्रभाव को शिव संकर जी के गले में ही रोक दिया इसलिए भगवान् भोलेनाथ को नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है।

सतयुग में अनमोल निधियों की प्राप्ति के लिए यानि अधिक से अधिक सुख हासिल करने के लिए देवताओ और दानवो ने समुन्दर का मंथन किया अर्थत ईश्वर की बनायीं दो बेहद शक्तिशाली लेकिन एकदूसरे के विपरीत सोच रखने वाली प्रजातियों ने समुन्द्र रूपी प्राकृतिक निधियों का ज्यादा से ज्यादा दोहन किया गया इस समुद्र मंथन का माध्यम बने नागेश्वर शिव के गले में रहने वाले शेषनाग जिनकी कुंडली में मंदराचल पर्वत को लपेटकर समुद्र का मंथन किया गया।

बासुकी का मुँह दानवो की तरफ और पूँछ देवताओ की तरफ था। पर्वत को नीचे से भगवान् विष्णु ने कछुए के रूप में आधार दिया था। लेकिन मंथन शुरु होते ही समुद्र से 'कालकूट' और वासुकि के मुख से 'हलाहल' विष की भयानक ज्वाला प्रकट हुई। जिसने पूरी सृष्टि को अपनी चपेट में ले लिया था। उसी समय मथन से विष निकला। हलाहल विष फैलने की वजह से देव-दानव मूर्च्छित होने लगे और मुद्र मंथन का काम ठप हो गया था. तब उन्होंने भोलेनाथ से विनती की।

महायोगी शिव ने अपने योगबल की ताकत से संपूर्ण विश्व के विष को इकट्ठा करके अपने गले में निगल लिया। पूरी सृष्टि का हलाहल और कालकूट विष शिव ने अपने कंठ में धारण किया जिसके कारण उनका गला नीला हो गया और उन्हें नीलकंठ के नाम से जाना गया। महाशिव गले में रखा विष को शांत करने के लिए पूरी सृष्टि ने उन पर शीतल जल की वर्षा की। आज शिवलिंग पर जल अर्पण करके हम भी इसी प्रक्रिया में अपना सहयोग देते है।

 

विष की ज्वाला समाप्त होने के बाद फिर समुद्र मंथन हुआ लक्ष्मी, शंख, कौस्तुभ मणि, ऐरावत हाथी, पारिजात का पेड़, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कामधेनु गाय, रम्भा और उर्वशी जैसी अप्सराएं, समस्त औषधियों के साथ वैद्यराज धनवन्तरि, चंद्रमा, कल्पवृक्ष, वारुणी मदिरा और अमृत निकला। माता लक्ष्मी को भगवान् विष्णु ने ग्रहण किया। हाथी - घोड़े ,कल्प वृक्ष ,अप्सरयें देवताओ को मिली। मनुष्यो को मिला प्राणदायक आयुर्वेदिक ज्ञान ,दानवो ने वारुणी मदिरा प्राप्त की। अमृत के लिए संघर्ष हुआ।

जिसमे भगवान् विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण करके देवताओ को अमृत और दानवो को वारुणी मदिरा धोखे से पीलादिया था। लेकिन इस उपलब्धि से पहले समस्त लोकनाथ शिव को कालकूट-हलाहल विष पीना पड़ा। जगत माता पार्वती ने उनका गला पकड़कर विष को कंठ से नीचे उतरने से रोक दिया। सर्वेश्वर शिव के अंदर संपूर्ण सृष्टि समाहित थी। यदि कालकूट विष नीचे उतरता तो संपूर्ण सृष्टि का विनाश हो जाता।  इसलिए ईश्वर ने महामाया पार्वती और अपने योगबल की मदद से विष को अपने कंठ में केन्द्रित कर लिया।

इसी विष की ज्वाला को शांत करने के लिए पिता परमेश्वर शिव पर ठन्डे गंगा जल की धारा अर्पित की जाती है। सावन के महीने में देवता भी आकाश से रिमझिम - रिमझिम फुहारों की वर्षा करके विषधर शिव का अभिषेक करते है। विष पूरी तरह ख़त्म करने के लिए आगे आयी माता आदि शक्ति –

 

देवताओं, गंधर्वों, यक्षों, दानवों, असुरों, राक्षसों, मनुष्यों के द्वारा अर्पित जल से भी शिव की जलन शांत नहीं हो रही थी तब माता आदिशक्ति महाविद्या ने अपना पहला अवतार धारण किया वह स्थूलशरीरा नीले तारा के रूप में प्रकट हुयी और विष के प्रभाव से नन्हे बालक की तरह बिलखते शिव को अबोध शिशु की तरह अपनी गोद में धारण किया फिर स्तन पान कराया। महाविद्याओ में सर्वप्रथम तारा का रंग नीला होता है यह प्रोढ़ावस्था में दिखाई देती है। वैसे तो शिव अजन्मे और अविनाशी है लेकिन स्तनपान करने के कारण भगवती तारा शिव की माता के रूप में माना जाता है।

 

माता तारा की पूजा बोध परम्परा में भी होती है महाशक्तियों में उनका स्थान महाकाली माता से भी ऊपर होता है उनके अमृतमय दूध के कारण ही शिव की ज्वाला शांत हुयी। माता तारा का प्रसिद्ध मंदिर झारखण्ड और पश्चिमी बंगाल की सीमा पर बीरभूमि जिले में एक शमशान के बीचो - बीच स्थित है।

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Article Posted By: Manju Kumari

Work Profile: Hindi Content Writer

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