वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी | Biography Of Veerangana Rani Laxmibai
वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी - रानी लक्ष्मी बाई मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी थी सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध बिगुल बजने वाले विरो में से एक थी। वे ऐसी वीरांगना थी जिन्होंने मात्र 23 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिश साम्रज्य की सेना से मोर्चा लिया और राण क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हो गयी। परन्तु जीते जी अपने राज्य झाँसी पर कब्ज़ा नहीं करने दिया।
रानी लक्ष्मी बाई की जीवन की कथा -रानी लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी जिले में 19 नवम्बर 1828 के एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन परिवार वाले उन्हें सप्रेम मनु पुकारते थे। उनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था और माता का नाम भागीरथी स्प्रे था।उनके माता पिता महाराष्ट्र से सम्बन्ध रखते थे। जब लक्ष्मी बाई जब चार साल की थी तभी उनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया था उनके पिता मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माँ के निधन के बाद घर में मनु की देख -भाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए थे। वह मनु के चंचल स्वभाव और उनकी सुंदरता ने सबका मन मोह लिया और सब उन्हें प्यार से "छबीली" पुकारने लगे थे। शास्त्रों की शिक्षा के साथ - साथ मनु को शस्त्रों की भी शिक्षा भी दी गयी।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
सन 1842 में मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और इस प्रकार वे झाँसी की रानी बन गयी। उनका नाम बदलकर रानी लक्ष्मी बाई कर दिया गया। सन 1851 में लक्ष्मी बाई और गंगाधर राव को पुत्र रत्न प्राप्त हुआ। और चार महीने के पश्चात् ही उसकी मृत्यु हो गयी। उधर गंगाधर राव का भी स्वास्थय बिगड़ता जा रहा था। स्वास्थ्य आधीक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी उन्होंने पुत्र को गोद ले लिया। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को गंगाधार राव परलोक सिधार गए। उनके दत्तक पुत्र का नाम दामोदर रखा गया।
अंग्रेजो की राज्य हड़प निति (ड्राक्टिंग ऑफ़ लेप्स) और झाँसी - ब्रिटिश इण्डिया के गवर्नर जनरल डलहौजी की राज्य हड़प निति के अंतरगत अंग्रेजो ने बालक दामोदर राव को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया था “ड्राक्टिंग ऑफ़ लेप्स निति” के तहत झाँसी राज्य का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में करने का फैसला कर लिया।हालांकि रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज वकील जान लैंग की सलाह ली। और लन्दन की अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। पर अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध फैसला हो ही नहीं सकता था। इसलिए बहुत बहस के बाद इसे खारिज कर दिया गया। अंग्रेजो ने झाँसी राज्य का खजाना जब्त कर लिया और रानी लक्ष्मीबाई के पति गंगाधर राव के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काटने का हुकुम दे दिया। अंग्रजो ने रानी लक्ष्मी बाई को झाँसी का किला छोड़ने को कहा , जिसके बाद उनहेरानी महल में जाना पड़ा। 7 मार्च 1854 को झाँसी पर अंग्रेजो ने अधिकारकर लिया। रानी लक्ष्मी बाई ने हिम्मत नहीं हारी और झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया।
अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष - अंग्रेजी हुकूमत से संधर्ष करने के लिया रानी लक्ष्मी बाई ने एक स्वम् सेवक सेना का संगठन प्रारम्भ कर दिया । इस सेना में महिलाओ की भी भर्ती की जा रही थी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया जा रहा था। झाँसी की आम जनता ने भी रानी लक्ष्मी बाई का इस संग्राम में साथ दिया। रानी लक्ष्मीबाई की हमशक्ल झलकारी बाई को सेना में प्रमुख स्थान दिया गया।
अंग्रजो के खिलाफ रानी लक्ष्मीबाई को जंग में कई अपदस्त और अंग्रेजी हड़प निति के शिकार राजाओ जैसे बेगम हजरत महल ,अंतिम मुग़ल सम्राठ की बेगम जीनत महल ,स्वम् मुग़ल सम्राठबहादुर शाह ,नाना साहब के वकील अजीमुल्लाह शाहगढ़ के राजा , वानपुर के राजा मुर्दन सिंह तात्या टोपे आदि सभी महारानी के इस कार्य में सहयोग देने का पर्यत्न करने लगे।
सन 1858 के जनवरी महीने में अंग्रेजी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च में झाँसी शहर को घेर लिया। लगभग दो हफ्तों के संघर्ष के बाद अंग्रेजो ने शहर पर कब्ज़ा कर लिया। पर रानी लक्ष्मी बाई अपने पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेजी सेना से संघर्ष करती हुई कालपी पहुंची वहां पहुंचकर तात्या टोपे से मिली।
तात्या टोपे और लक्ष्मी बाई की संयुक्त सेना ने ग्वालियर के विद्रोहियों सैनिको की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्ज़ा कर लिया। रानी लक्ष्मी बाई ने जी - जान से अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया अंग्रेजों ने झांसी पर चढ़ाई कर दी। झांसी की सेना ने रानी के नेतृत्व में भयंकर युद्ध हुआ। लेकिन चंडी के तरह दुश्मन का संहार कर रही थी। लेकिन अंत में झांसी की रानी 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा सराये में ब्रिटिश सेना से लड़ते - लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गयी।
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
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Article Posted By: Manju Kumari
Work Profile: Hindi Content Writer
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