बकरा ईद कब मनाई जाती है ? इसको मानाने का क्या कारण है ?

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बकरा ईद कब मनाई जाती है ? इसको मानाने का क्या कारण है ?- जिसका मतलब क़ुरबानी की ईद )इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगो का एक प्रमुक त्यौहार है। रमजान के पवित्र महीने की समाप्ति के लगभग 70 दिन बाद इसे मनाया जाता है। इस्लामिक मान्यता के अनुसार हजरत इब्राहिम अपने एकलौते बेटे हजरत इस्माइल को इसी दिन खुदा के हुक्म पर खुदा की राह में कुरबान करने जा रहे थे। तब अल्लाह ने उसके बेटे को जीवन दान दे दिया जिसकी याद में यह त्यौहार बकरा ईद मनाई जाती है।

अरबी भाषा में "बक़र" का अर्थ है गाय लेकिन हिंदी भाषा में बकरी - बकरा से यह नाम जुड़ा हुआ है। अर्थात इस देश में बकरा की क़ुरबानी के कारण असल नाम से बिगाड़ कर आज भारत ,पकिस्तान व् बांग्ला देश में यह बकरा ईद के नाम से विख्यात है।

 

ईद-ए-कुर्बान का अर्थ है बलिदान की भावना। अरबी में 'क़र्ब' नजदीकी या बहुत पास रहने को कहते है मतलब अल्लाह इस मोके पर इन्सान के बहुत करीब हो जाता है। क़ुरबानी उस पशु के ज़िब्ह करने को कहते है जिसे 11,12 या 13 ज़िलहिज्ज (हज का महीना) कोखुदा को खुश करने के लिए ज़िबिह किया जाता है। कुरान में लिखा है - हमने तुम्हे हौज़-ए-क़ौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज़ पढ़ो और क़ुरबानी करो।

इस ईद को विचित्र नमो से जाना जाता है -

ईदुल अज़हा

ईद-अल अज़हा

ईद-उल अज़हा

ईद अल-अधा

ईदुज जुहा  

त्याग का उत्थान - बकरी का त्यौहार हिजरी के आखरी महीने जू अल-हज्ज़ा में मनाया जाता है, पूरी दुनिया के मुसलमान इस महीने में मक्का सऊदी अर्ब में एकत्रित होकर हज मानते है ईद-उल अज़हा भी इसी दिन मनाई जाती है। वास्तव में यह हज की एक अदायकीऔर मुसलमानो के भाव का दिन है। दुनिया भर के मुसलमानो का एक समूह मक्का में हज यात्रा करता है, बाकि मुसलमानो का अन्तर्राष्ट्रीय भाव का दिन बन जाता है। ईद-उल अज़हा का अक्षरशः अर्थ त्याग वाली ईद है। इस दिन जानवर की क़ुरबानी देना एक प्रकार की प्रतीकात्मक क़ुरबानी है।

 

हजरत मुहमद जी ने कभी मांस नहीं खाया न ही उन्होंने कभी मासूम जानवर की हत्या करने का आदेश दिया। बकरीद की आड़ में जानवरो की हत्या करना तथा उनका मांश खाना महापाप है।

 

संत कबीर जी ने अपनी वाणी में कहा है -

 

नबी मुहम्मद नमस्कार है ,नाम रसूल कहाया।

एक लाख अस्सी कूं सौगंध,जिन नहीं अरद चलाया।।

 

अर्श कुर्स पर अल्लाह तख्त है ,खालिक बिन नहीं ख़ाली।

 वे पैगम्बर पाक पुरुष थे , साहिब के अब्दाली।।

 

मारी गऊ शब्द के तीरम ,ऐसे थे मुहम्मद पीरम , शब्दे फिर जिवाई।

 हंसा राख्या मांस नहीं भाख्या , ऐसे परर मुहम्मद भाई।।

हज और उसके साथ जुडी हुई पद्धति हज इब्राहिम और उसके परिवार द्वारा किया गए कार्यो को प्रतीकात्मक तौर पर दोहराने का नाम है। हजरत इब्राहिम के परिवार में उनकी पत्नी हाजरा और इस्माइल थे मान्यता है कि हजरत इब्राहीम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें वह अपने पुत्र इस्माइल की कुर्बानी दे रहे थे हजरत इब्राहीम अपने दस वर्षीय पुत्र इस्माइल को ईश्वर की राह पर कुर्बान करने निकल पड़े।

 

 पुस्तकों में आता है कि ईश्वर ने अपने फरिश्तों को भेजकर इस्माइल की जगह एक जानवर की कुर्बानी करने को कहा। दरअसल इब्राहीम से जो असल कुर्बानी मांगी गई थी वह उनकी खुद ही की थी। अर्थात ये की खुद को भूल जाओ मतलब अपने सुख - आराम को भूल कर खुद को मानवता यानि इंसानियत की सेवा में स्वम् को पूरी तरह से लगा दो। तब उन्होंने अपने पुत्र इस्माइल और पत्नी हाजरा को मक्का में बसाने का फैसला लिया लेकिन मक्का में रेगिस्तान के सिवाय कुछ भी न था उन्हें मक्का में बसाकर खुद मानव सेवा के लिए निकल गए।

इस तरह एक रेगिस्तान में बसना उनके और उनके परिवार की क़ुरबानी थी। जब इस्माइल बड़े हुए तू वहां से एक काफिला गुजरा और इस्माइल का विवाह उसी काफिला में से एक युवती के साथ करा दिया गया फिर प्रारम्भ हुआ एक वंश जिसे इस्माइलिस्ट , या वाणु इस्माइल के नाम से जाना जाता है। हजरत मुहणाद साहब का इसी वंश में जन्म हुआ था ईद-उल अज़हा के दो सन्देश है -

 

(1) परिवार के बड़े सदस्य को स्वार्थ के परे देखना चाहिए और खुद को मानव उत्थान के लिए लगाना चाहिए।

 

(2) ईद-उल अज़हा यह याद दिलाता है की कैसे एक छोटे से परिवार में एक नया  अध्याय लिखा गया।  

 

मस्जिद में भक्त ईद अल-अधा की प्रार्थना करते है ईद अल-अधा की प्रार्थना किसी भी समय की जा सकती है। जब सूरज पूरी तरह जिहार के प्रवेश से ठीक पहले उठता है ,10वी तारीख को धु अल-हिजाह पर।

 

सामूहिक तौर पर इस की नवाज अदा की जानी चाहिए। प्रार्थना मंडली में महिलाओ की भागीदारी समुदाय से समुदाय में भिन्न होती है इसमें दो राकात ( इकाईया ) शामिल है जिसमे पहली राकात में सात तकबीर और दूसरी राकात में पांच तक्बीरे है।शिया मुसलमानों के लिए, सलात अल-ईद पाँच दैनिक विहित प्रार्थनाओं से अलग है जिसमें कोई ईशान (नमाज़ अदा करना) या इक़ामा (कॉल) दो ईद की नमाज़ के लिए स्पष्ट नहीं है। सलाम (प्रार्थना) के बाद इमाम द्वारा खुतबा, या उपदेश दिया जाता है।

प्रार्थनाओ और उपदेशो के समापन पर ,मुस्लमान एक दूसरे से गले मिलते है और एक दूसरे को बधाई देते है ( ईद मुबारक )उपहार देते हुए एक दूसरे से मिलते है। बहुत से मुस्लमान अपने ईद त्यौहार पर अपने गैर मुस्लमान दोस्तों ,पड़ोसियों, सहपाठियों ,और सहकर्मियों को इस्लाम और मुस्लिम संस्कृति के बारे में बेहतर तरीके से परिचित कराने के लिए इस अवसर पर आमंत्रित करते है। 

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Article Posted By: Manju Kumari

Work Profile: Hindi Content Writer

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It is realy Nice article thanks for sharing. Keep sharing information.

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